Thursday 29 October 2015

बस कर पगले , रुलाएगा क्या....

बस कर पगले , रुलाएगा क्या....
बिहार मे कोसी नदी के किनारे एक गाँव हैं। आजकल डबल बाढ़ग्रस्त है। पानी के साथ-साथ नेताओं की बाढ़ भी आयी है। आम आदमी ज़्यादा हाय तौबा नहीं मचाता। वह तो बस किसी तरह किनारे लगना चाहता है। किनारे लगे एक मित्र ने फोन पे बताया कि वहाँ तो मेला लगा हुआ है। सिर के ऊपर हेलिकॉप्टर मच्छरों की तरह मंडरा रहे हैं। भाषण, वादे और तंज़ का मिश्रित रॉक संगीत तार सप्तक मे बज रहा है। पानी के अंदर डुबकी लगाओ, तो भी गायन-वादन की भनभनाहट सुनाई देती है।
दुष्यंत संभवतः इसीलिए लिख गए थे- “ये रोशनी है हक़ीक़त मे एक छल लोगों, कि जैसे जल मे झलकता हुआ महल लोगों।” चुनाव होता है तो मेला ही लगता है। रोशनी होती है। चमक-धमक होती है। गरीबी-भुखमरी की नुमाइश लगती है। गरीबी-भूखमरी के जनक और उसका लालन-पोषण करने वाले ही उन्हें ख़रीदते हैं।
प्रलोभनों का एक्स्चेंज ऑफर भी राजनीति के बाज़ार को गरम किए हुए है। मुआवज़े और अला-फलां पैकेज एक्स्चेंज मे देकर गरीबी ख़रीदने का सफल प्रयास सतत जारी है। अपने मित्र को सावधान करते हुए मैं बोला, प्यारे! बचके रहना...उन्हीं हेलिकॉप्टरों से खून-चूसक प्राणी उतरेंगे। तुम्हारे आसपास पास नाचेंगे। तुम्हारा मनोरंजन करेंगे। मौका पाते ही तुम्हारे भ्रम का भंजन भी करेंगे। प्रलोभन का तगड़ा डंक मारेंगे। तुम फिर से पाँच वर्ष के लिए तड़पोगे...हो सकता है सरकारी पंचवर्षीय योजना की भांति, तुम अपने जीवन का कार्यकाल पूरा करने से पूर्व ही परलोक सिधार जाओ... तुम ख़त्म हो जाओगे...वे कहेंगे हम गरीबी मिटाने को प्रतिबद्ध हैं...देखो एक गरीब कम हुआ।
मित्र हंसा। मुक्तिबोध स्टाइल मे बोला, कोई नई बात करो पार्टनर... उसने एक स्थान का हाल सुनाया। नेताजी आगामी चुनावों के मद्देनज़र, प्रलोभन-पिटारा खोले बैठे थे। ये प्रलोभन-पिटारा केवल खुलता है। कभी खाली नहीं होता है। ज़रा सा भी नहीं। बस अपनी चमक बिखेरता है। जनता की आँखें चौंधिया जाती हैं। आस की मारी जनता एक बार और सही कहकर वोट देने का प्रयास करती है। चुनावोपरांत पिटारा स्वतः बंद हो जाता है। नेता रूपी मदारी जनता से कहता है, चल री बंदरिया...अब खेल खतम, पैसा हज़म...एकदूसरे को न तू जाने न हम... वहाँ नेताजी मीडिया संग जनता को दाना फेंकते हुए बोले, मेरे प्यारे! दुलारे! खेवनहारों, मेरे बिहारी भाइयों! विजयी होने पर हम बिहार को बैंगलोर बना देंगे। चारों ओर स्मार्ट सिटी नज़र आएंगे। पढ़ने वाले बच्चों को साइकिल नहीं, बल्कि स्कूटी देंगे। कॉपी-किताबें नहीं, वरन लैपटॉप देंगे। वादा है... बिहार से गरीब और गरीबी का नामोंनिशान मिटा देंगे...बस शर्त ये है कि हम जीत जाएँ...
एक आदमी चुपचाप भाषण सुन रहा था। मुझे समझदार लगा। हमारे सभ्य समाज मे चुप रहकर, सिर्फ सुनना समझदारी और शराफत की निशानी है। लेकिन बाद मे उसने अपनी समझदारी उतार फेंकी। बेधड़क मंच पे चढ़ गया। जब आदमी को भरोसा हो जाता है कि अब धड़कन बंद ही होनी है, तो वह बेधड़क हो जाता है। चढ़ते ही उसने माइक पर से नेताजी का एकछत्र राज छीन लिया। बोला, हे महाराज!, आप हमारे बारे मे इतना सोच रहे हैं...आपका बारंबार धन्यवाद...आप हम सबके प्यारे हैं...मैं तो कहूँगा कि हमारी क्या औकात? आप तो भगवान को भी प्यारे हैं...अभी नहीं है...तो जल्द ही होंगे! मगर माननीय! आप से विनती है। सिटी की सीटी न बजाएँ। स्मार्ट तो हम अच्छी खेती करके भी बन जाएंगे। बस अब ज़मीनें छोड़ दें। चारा खाकर आप अपनी महानता कम न करें। चारा हमारे मवेशी खाएँगे। आप छप्पन भोग का आस्वादन करें। हमारे होनहार बच्चे निकलते तो स्कूल के लिए ही हैं, मगर उनका स्कूल अक्सर अनुपस्थित रहता है। कॉपी-किताबें तो खैर बाबुओ-टीचरों का मिड-डे-मील बन जाती हैं। अतः हे दयाखिचान! आप लैपटॉप न दें। बस बिजली छोड़ दें...या तो बिहार मे जान आ जाएगी, या बची-खुची भी चली जाएगी। आपकी सुकुमार स्कूटी हेतु हमारी सड़कें अछूत हैं। यदि स्कूटी आई तो उसके नट-बोल्ट बिहार की भांति ढीले पड़ जाएंगे। उसमे ईधन डालने हेतु धन चाहिए होगा। आपकी वेतनवृद्धि पहले ही रुकी हुई है। मैं आपका कष्ट समझता हूँ। धन के लिए रोजगार चाहिए, मगर वो भी नहीं है। तो हम नहीं चाहते कि आपकी स्कूटी मात्र अपहरण-फिरौती के ईधन पे चले। हे विघ्नकर्ता! आप कष्ट न उठाएँ। हम गरीब हैं। स्वयं को आसानी से खत्म कर लेंगे। गरीब और गरीबी का नामोंनिशां मिट जाएगा। आप बस प्रसन्न रहें...
पता नहीं नेताजी प्रसन्न हुए या सन्न रह गए। बस अपनी डबडबाती आँखों से इतना बोले, बस कर पगले, रुलाएगा क्या’?
                     -अभिषेक अवस्थी

Tuesday 6 October 2015

MP Jansandesh - 04-10-15

‘जब नेताजी रूठ गए...’
कुछ माह पूर्व पैदा हुए पार्टी परिवार मे ग़म पसरा है। ठीक से बड़ा भी न हुआ था कि एक अहम अंग रूठकर बिछड़ गया है। हाहाकार मचा हुआ है। हाय! हाय! ये क्या हो गया! नेताजी ने स्वयं को गठबंधन से मुक्त क्या किया, सारे मंसूबों पे पानी फिरता दिख रहा है। परिवार की हालत मृतक आश्रित सी हो गयी है। सबके मन मे एक ही सवाल है। नेताजी ने ऐसा क्यों किया? किया सो किया, किन्तु अपनी ही बिरादरी के साथ क्यों किया? गठबंधन के चन्दन से अपना भाग्य महकाने वाले आज क्रंदन कर रहे हैं। उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि सर्प और चन्दन का मेल नहीं होता। यदि नेताजी ऐसा नहीं करते तो कैसा करते? जिसे तलाक़ लेने का अनुभव परस्पर रहा हो, वह भला शादी जैसे भरोसे से कबतक बंधा रहेगा? ऐसा नहीं करने पे वे नेता किस मुंह से कहलाते? इनलोगों को ये समझ नहीं आता है कि उन्हें दल बदलने की ‘अच्छी बीमारी’ है। इसके अंदरूनी एवं बाहरी, कई अज्ञात कारण होते हैं। अक्सर नेताओं की अच्छी बीमारियों के ‘कारण’ अज्ञात ही होते हैं। दवा-दारू खोजने की आवश्यकता नहीं पड़ती। फिर, ‘लॉन्ग-टर्म’ रिस्क भी ‘मैनेज’ करना है उन्हें।
कुछ कह रहे हैं कि अनर्थ हो गया। इतने पापड़ बेलने के बाद शत्रु के शत्रु मित्र हुए थे। कम से कम ज़माने को दिखाने के लिए तो हुए ही थे। विपक्षी दल की ‘मोनोपोली’ हुई जा रही है। जब किसी बड़े ‘गैंगस्टर’ को ठिकाने लगाना हो, तो आपस मे घोर शत्रुताधर्म के निर्वाहक ‘छुटभैये चोर-उचक्कों’ का साथ आना लाज़िमी है। मुझे इस प्रकार की एकता बड़ी अच्छी लगती है। भरोसा जाग उठता है कि ‘फूट’ पड़ना ही नियति है। मन मार कर राजनीति के ‘बेचारों’ ने हाथ मिलाया था। पहले से मृत पड़े अपने ज़मीर की बारंबार हत्या के पश्चात तो गठबंधन हुआ था। फूल-माला, फोटो-सेल्फी आदि के साथ नेताजी को गठबंधन परिवार का मुखिया नियुक्त किया था। मगर परिवार पे नेताजी के ‘हृदयपरिवर्तन’ का पहाड़ टूट गया। नेताओं का हृदपरिवर्तन पूर्वनियोजित (प्री-प्लान्ड) होता है। यथोचित समय पर उनकी ज़ुबान से इस परिवर्तन की सूचना आती है। हमे लगता है कि सब ‘अचानक’ होता है।
सुना कि नेताजी सीटों के बँटवारे के चलते रुष्ठ हो गए। कह रहे थे, ‘मुखिया हमे बनाया, तो लड़ने हेतु सबसे ज़्यादा सीट हमे ही मिलनी चाहिए थी...पूरे गठबंधन का बोझ हमपे डाल दिया...सीटों का भार हल्का कर दिया...’ गठबंधन की ज़मीन हिल गयी है। उसके ‘शेषनाग’ ने रुष्ठता का मिश्रण करके मदिरापान किया है। ज़मीन को उसी के हाल पे छोड़ दिया है। झूमते हुए गा रहे हैं, ‘इतना न मुझपे ऐतबार करो, मैं नशे मे हूँ...’
गठबंधन की धरती हिली तो गठबंधनीय दलों के मुखिया लुढ़कते हुए अपने ‘सांप’...सॉरी, ‘नाग’...सॉरी, ‘शेषनाग’ के पैरों पे आकर टिक गए। राजनीति मे किसी के भी पैरों पे टिकना सम्मानजनक होता है। यहाँ थूक कर चाटने वाला ही श्रेष्ठ पद पे विराजता है।
एक दल के मुखिया, नेताजी के पैरों पे टिककर संभलते हुए बोले, ‘अरे महाराज! वोटिंग के आखिरी चरण तक तो रुक जाते...सब आपके चरणों मे पड़े हैं...कुछ नहीं तो रिश्तेदारी का ही ख्याल किया होता! बिना प्रकाश वाले इस प्रदेश मे आपकी साइकिल को अंधेरे मे रास्ता तो हमारी लालटेन ही दिखाती न! सीट की ज़रा सी बात पे आप नाता तोड़ रहे हैं...’ नेताजी बोले, ‘बात सीट की नहीं, हमारे सम्मान की है...’
‘नेता होकर आप सम्मान की बात करते हैं...आपकी सोच पर तरस आता है...’
‘हाँ, कम सीटों पे चुनाव लड़ना हमारे सम्मान के विरुद्ध है...’
‘आप फिर सम्मान-सम्मान रटने लगे... जैसे हिन्दी के साहित्यकार को साहित्य मारता है, वैसे ही ये सम्मान हमे ले डूबेगा...’
‘क्या मतलब?’ नेताजी गुर्राए।
‘मैं कहता हूँ कि जिस वस्तु की आवश्यकता नहीं है, उसके मोहपाश मे क्यों फँसते हैं? भला हमे सम्मान से क्या लेना-देना? सम्मान वाले पंछी राजनीति के आसमान मे ऊंचा नहीं उड़ पाते...’
नेताजी थोड़ी देर चुप रहे। ‘पैर-पड़ू’ मुखिया को कोने मे ले जाकर बोले, ‘सिर्फ सीटों की बात नहीं है...कल को चुनाव मे विजयी हुए, तो ये लोग मुझे दूसरे प्रदेश का कहेंगे...’ इसपर मुखियाजी बोले, ‘तब आप समर्थन खींच लेना...कोई नई बात तो है नहीं...’
‘लेकिन...’
‘लेकिन-वेकिन कुछ नहीं...साथ चलना ही होगा...’
देखो बंधु, तुम राजनीति के पुराने चावल हो...सब समझते हो... हम नहीं जा सकते...’
‘पका हुआ तो हूँ... इसलिए अब बता दीजिए कि असली माजरा क्या है’?
नेताजी धीरे से बोले, ‘अब तुम जैसे अनुभवी आदमी, ओह माफ करना...अनुभवी नेता से क्या छिपाना...दरअसल हमसे अपनी ही सरकार नहीं संभाल जा रही है...मुझे और तमाम अपने लोगों पर ही सीबीआई की जांच बैठी हुई है...तो...’
‘बस-बस’ मुखियाजी उन्हें टोकते हुए बोले, ‘मैं आपका दुख समझता हूँ...आप जाना चाहते हैं...शौक से जाइए...हम सबसे कह देंगे कि शौक बड़ी चीज़ है...’

Monday 17 August 2015

‘बड़े दिनों के बाद, आयी वतन की याद...’



बड़े दिनों के बाद, आयी वतन की याद...
हर वर्ष की तरह, इस वर्ष भी स्वाधीनता दिवस के मंच पे स्वतंत्र होने के नाटक की तैयारियां चल रही हैं। कलाकार अभी पर्दे के पीछे हैं। कोई गांधी बनने के लिए लुंगी लपेट रहा है। कोई नेहरू बनने के लिए गुलाब ढूंढ रहा है। नेता जितने भी थे, सब टाइड की सफेदी का विज्ञापन करने वाले हैं। शहीद होने वाले लोग मिट्टी मे मिलेंगे, सो उन्होने लाल रंग वाली मिट्टी लपेट रखी है। बैकड्रॉप मे भारत माता चुपचाप खड़ी हैं। हाथों मे तिरंगा लिए हैं। दोनों हिलडुल भी नहीं रहे हैं। ऐसा लग रहा है मानों किसी सरकारी अस्पताल के आईसीयू के अंदर, वेंटीलेटर पे टिके हों। हालांकि वे स्वतन्त्रतापूर्वक नाटक के निर्देशकों के आधीन हैं, और आदेश का पालन करना उनकी विवशता है। नाटक शुरू होने का समय तो हो गया है, किन्तु अभी मुख्य अतिथि नहीं पधारे हैं। कलाकारों को उनकी स्लो आदत का पता है, सो वे इतमिनान ने फास्टफूड ढकोलने मे लगे हैं। निर्देशक खुश हैं क्योंकि वे बिल बढ़ाकर मुख्य अतिथि को देंगे। मुख्य अतिथि उसमे वृद्धि करके, आगे वाले डिपार्टमेन्ट मे सरका देंगे। बिल बढ़ता जाएगा। नाटक का कुछ भाग यूं ही बढ़े हुए बिल द्वारा फ़ाइनेंस हो जाएगा।
इस मौके के मद्देनज़र, सुरक्षा चाक-चौबन्द है। मजाल नहीं कि परिंदा पर भी मारे। अगर मारेगा, तो मार दिया जाएगा। आज स्वतन्त्रता दिवस है, लेकिन उड़ने की आज़ादी परिंदे को भी नहीं है। तमाम अतिथि आने लगे हैं। बीएमडबल्यू, ऑडी जैसी गाड़ियों की कतारें मुख्य द्वार पे लगी हैं। सूट, पैंट, टाई, और खादी के चमचमाते परिधानों के अंदर घुसे दर्शक गंभीर मुद्रा लिए उतर रहे हैं। देखने से ही पता चल रहा है कि उनकी जांच की आवश्यकता नहीं हैं। वे स्वतंत्र जो हैं। हाँ, उनके ड्राइवरों को कड़ी जांच से गुज़रना पड़ रहा है। वहीं से एक किसान, एक मज़दूर और एक भिखारी गुज़र रहे थे। उन्हें भी पता था कि वर्षाऋतु मे लोगों के अंदर देशभक्ति के बादल उमड़ते हैं। और महीने के बीचोंबीच बरस पड़ते हैं। उनके अंदर स्वतन्त्रता का भाव जागा। कौतुहूल के साथ नाटक वाली जगह को देखने लगे। सोच रहे थे कि वे भी नाटक देखलें। देखलें कि ये स्वतन्त्रता वाले आखिर हर वर्ष कैसा नाटक करते हैं। वे इस भ्रम मे थे कि नाटक स्वतन्त्रता पर है, तो वे भी उसका मंचन स्वतंत्रतापूर्वक देख सकते हैं। अक्सर अमीरों के बीच कोई गरीब खड़ा होता है तो वह स्वयं को अपराधी सा मान लेता है। नज़रें चुराने लगता है। तीनों लजाती नज़रों के साथ गेट की ओर गए। सुरक्षाकर्मियों ने टिकट मांग लिया। टिकट तो उनके पास था नहीं, सो लजाती नज़रें और गड़ गईं। बेचारे टिकटीय रूप से स्वतंत्र न थे।
इतने मे मुख्य अतिथि की लैंडरोवर आ गयी। सुरक्षाकर्मी सतर्क हो गए। किसान, मजदूर और भिखारी वहाँ से हटने लगे। किन्तु सुरक्षाकर्मियों मे मुस्तैदी का आधिक्य हो चुका था। उन्होने अपनी मुस्तैदी का प्रदर्शन तीनों पे लठियाँ भांजकर कर दिया। मुख्य अतिथि यह देख अंदर ही अंदर खुश हो गए। उनके सलाहकार ने उन्हें कान मे कुछ कहा, तो वे मुस्कुरा दिए। पहले वे भी नुक्कड़ नाटक किया करते थे। किन्तु जबसे ऊपर उठे हैं, अत्यधिक नाटकीय हो गए हैं। उन्होने सुरक्षाकर्मियों को तुरंत रोकते हुए कहा कि उन तीनों को अंदर जाने दिया जाए। टिकट का पैसा खाने के बिल मे जोड़ दिया जाए। किसान, मज़दूर और भिखारी खुश हुए। तीनों अंदर घुसे और सबसे पीछे खड़े हो गए। मुख्य अतिथि अपना भाषण शुरू करने ही वाले हैं कि अचानक किसान के मोबाइल मे किसी का फोन आया। पेट जब भूखा हो तो डाइटिंग की नियमावली किसी को याद नहीं रहती। गरीबी मे इंसान दुनियादारी की नियमावली भूल सा जाता है। उसके फोन की रिंगटोन की आवाज़ उतनी ही बुलंद है, जितनी भारत मे गरीबी बुलंद है। सबका ध्यान उसकी रिंगटोन पे जाता है। जहां बज रहा था – चिट्ठी आयी है, आयी है, चिट्ठी आयी हैबड़े दिनों के बाद, हम बेवतनों को याद वतन की  मिट्टी आयी है...’  
                 -अभिषेक अवस्थी



Wednesday 1 July 2015

जुलाई 2015 की कादंबिनी मे प्रकाशित

Monday 8 June 2015

Amar Ujala
स्वप्नलोक मे शिवजी, ताजमहल और मैं! (परिवर्धित लेख)
मैं सरकार की भांति सत्ता के पालने मे गहरी नींद के आगोश मे था। न जाने कब स्वप्नलोक मे विचरण हेतु पहुँच गया। यकायक मुझे भगवान शिव मेरी ओर आते दिखे। मेरी आश्चर्यमय प्रसन्नता का कोई ठिकाना ही न रहा। न तो मैं प्रतिदिन मंदिर जाता हूँ। न ही सोमवार को शिवलिंग पे दूध बहाता हूँ। बावजूद इसके, भोलेभंडारी मुझे दर्शन दे रहे हैं। कलयुग मे मेरे जैसे सामान्य मनुष्य को भगवान के दर्शन होना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। मैंने तो पुण्य टाइप कोई कांड भी नहीं किया। अंजाने मे ही सही, पापी तो मैं भी हूँ। लगता है भगवान(नों?) को भी जनता की प्रवृत्ति सी हो चली है। जैसे जनता हर बार कम भ्रष्टाचारी को अपना नेता चुनती है, वैसे ही भगवान भी कम पापी को भक्त समझ बैठे।
समीप आते ही मैं भगवान के चरणों मे लोट गया। बोला- प्रभु! अहो भाग्य हमारे, जो आप पधारे। किन्तु प्रभु! आप तो भगवान हैं, अंतर्यामी हैं। आपका नेटवर्क तो फाइव-जी से कहीं अधिक शक्तिशाली है। ऊपर से ही वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग द्वारा अपने मन की बात कह देते। शिवजी रहस्यमयी मुस्कान ढीलते हुए बोले- क्या करूँ पुत्र!, मनुष्यों के कारण जो अत्याचार और घृणा के काले-घने बादल छाए हैं, वे अब ब्रह्मांड मे भी अपने पाँव पसार रहे हैं। फलस्वरूप हमारे यहाँ भी नेटवर्क की भारी समस्या उत्पन्न हो गयी। इधर गुज़रते हुए त्रिनेत्र ने वाईफाई के तगड़े और फ्री नेटवर्क के संकेत दिए।
उनकी रहस्यमयी मुस्कान देख मैंने पूछा- हे पालनहार! क्या हुआ? आप इतना जो मुस्कुरा रहे हो, क्या ग़म है जो छुपा रहे हो? 
वे बोले- पुत्र! क्या बताऊँ जैसे ही मेरी जटाओं ने वाईफाई का नेटवर्क पकड़ा, भारतभूमि से जुड़ी अनगिनत अधिसूचआएँ मेरे मन-मष्तिष्क की घंटी प्रतिपल बजा रहीं हैं इतनी घन्टियां तो मैने किसी सोमवार अथवा शिवरात्रि मे भी नही सुनी मैने कहा- किंतु प्रभु! आपको तो प्रसन्न होना चाहिए न भक्तों की तादात जितनी बढ़े, उतना अच्छा आजकल इन्द्रदेव फ़िर से अनियंत्रित हो रहे हैं इधर सरकार और उधर से वर्षा का हाहाकार न जाने कितनी ही घन्टियां तो इस देश के किसान ही बजा रहे होंगे जो बजाते-बजाते थक गए, इन्द्रदेव से प्रत्यक्षतः निपटने स्वर्गलोक निकल गए शंकर जी सीरीयस मोड मे आ गए बोले- बात वो नही है किसान तो सदैव ही परेशान रहता है इसमे इन्द्र को मत घसीटो मैने कहा- तो ठीक है प्रभु मुद्दे पे आइए कहने लगे- दरसल, वाईफाई ऑन होते ही यकायक अजीब से नोटिफिकेशन आए अच्छा खासा ताजमहल बना हुआ है उसके नीचे मेरे होने की बात कही जा रही है। मैं तो सर्वत्र हूँ अनावश्यक चक्करों मे मुझे फँसाया जाता है। चिंता तो होगी ही न? विद्यालयों मे इतना रटाया जाता है कि भैया ईश्वर-अल्लाह सब एक हैं किंतु न! तुमलोगों को कुछ याद ही कहाँ रहता है कभी बाबरी, कभी शिवमंदिर, कभी राममंदिर बस कोई न कोई बहाना चाहिए लड़ने का लाइमलाइट मे रहने का अब ताजमहल को ही लपेटे लिया अरे भाई, इतनी ख़ूबसूरत इमारत है सब मिलकर उसके जैसा सुंदर हृदय रखो और फ़िर ताजमहल के अंदर मैं हूँ या मेरे अंदर ताज, बात तो समान ही रहेगी कल और आज
इससे पहले कि प्रभु गुस्से मे तांडव जैसा कुछ कर बैठते, मैने मामला सम्भालते हुए कहा- अब आप ही कुछ उपाय बताएँ प्रभु! वे बोले- उपाय अत्यंत सरल है 'धर्मगुरुघंटालों' और नेताओं को चाहिए कि शांति'स्वरूप' और  प्रेम'योगी' बनकर जीवन का असल आनंद लें और सबको दें सौहार्द और सहयोग को 'साक्षी' मानकर 'आज़म-ए-ओवैसी' कहलाएं 
शंकरजी की बातें सुनकर मुझे लगा कि कहीं वे भावुकता मे बह न जाएँ मैने उन्हें बीच मे रोक कर कहा- हे प्रभु! ये नामुमकिन है हमारे यहाँ इंसान को बनाने वाले भगवान बदले जाते हैं इंसान नही बदले जाते है आपको कोई ठोस क़दम ही उठाना होगा इतना सुनते ही भोलेनाथ ने नन्दी को आवाज़ लगायी और जाने को तैयार हुए भगवान कब ठोस क़दम उठाएंगे, ये न पता चला किंतु नन्दी ने मुझपे एक लात देमारी और मुझे स्वप्न्लोक से बाहर फेंक दिया
                                  -अभिषेक अवस्थी



Thursday 4 June 2015

नई दुनिया - अधबीच 04-06-15
ये आरक्षण का जिन्न जब तब बोतल से बाहर निकल आता है। सरकार अलादीन की भांति इसे तमाम जद्दोजहद करके हर बार बोतल मे बंद करती है। परंतु ये है कि गुलामी पसंद नहीं करता है। अपने चाहने वालों की सहायता से यह हर बार बोतल का ढक्कन खोल, कुछ तूफानी करने को आतुर हो जाता है। इस जिन्न का ‘इस्तेमाल’ करने वाले सहायक नाम के प्राणी भी कम नही हैं। जब-जब इनको लगता है कि मेहनत, शिक्षा और पराए सुख से इन्हें कष्ट है, तब-तब ये आरक्षण के जिन्न को ‘पेरोल’ पे आज़ाद करवाते हैं। तदुपरान्त रेलवे की पटरियों पे ये दोनों मिलकर अपना तांडव करते हैं। जिन्न को दूल्हे का रूप देकर अपने मतलब की घोड़ी को रेलवे ट्रैक पर दौड़ाते हुए, सरकारी दुल्हन तक पहुंचाया जाता है। प्रदर्शनकारी बारातियों को ये पूरा भरोसा रहता है कि भारत भर के रेलवे ट्रैक पर उनका मालिकाना हक़ है।
पिछले दिनों मैं भी एक ऐसे ही प्रसंग मे फंसा था। दरअसल हुआ यूँ कि जिस ट्रेन से मैं सफर कर रहा था, वह अचानक किसी वीरान जगह पे रुक गयी। रुकना कोई नई बात नहीं है। लेकिन किसी प्राइवेट अस्पताल की तरह साफ-सुथरे मौसम मे, एक सुपर फास्ट एक्सप्रेस ट्रेन का चार घंटे से ऊपर यथास्थान खड़े रहना अवश्य ही नयी बात है। अरे! एक रेलगाड़ी ही है न! कोई देश की गरीबी तो है नहीं कि जो अड़ियल बनकर एक ही स्थान पे टिकी रहे। न नीचे खिसकती है न ऊपर। मुई वहीं की वहीं धरी है। ख़ैर, जैसा की सदैव होता है, ट्रेन रुकते ही मेरी बोगी के अधिकांश ‘मर्द’ अपने माथे पे प्रश्नसूचक उभारते हुए नीचे उतार गए। ट्रेन रुकने पर मर्द अक्सर द्रुतगामी हो जाते हैं। वे आविलम्ब इंजन की ओर ऐसे लपकते हैं जैसे रेलवे का सम्पूर्ण अतलस्पर्शी ज्ञान उन्हें ही प्राप्त हो। कुछ महानुभाव तो इतना कॉन्फिडेंटली अपने क़दम इंजन की ओर बढ़ाते हैं, जैसे हर समस्या का निदान उनके पास ही उपलब्ध हो। गोया कि लोकोपायलट का पूरा कोर्स उन्होने आत्मसात किया है। यदि ड्राईवर बीमार हो गया तो वे ही गाड़ी ले उड़ेंगे। मैने भी अपना आलस्य त्यागा। मांजरा समझने हेतु खरामा-खरामा इंजन की ओर बढ़ा। पता चला कि कुछ प्रदर्शनकारी ट्रेन के आगे कटने को तैयार ‘पड़े’ थे। पास मे ही एक नौजवान प्रदर्शनकारी कोलड्रिंक पीता दिखा। समय बिताने के लिए मैंने उसे पकड़ा। सवाल जवाब शुरू हुए।
मैंने पूछा, ‘तुम तो अच्छे खासे नौजवान हो। मेहनत करो, पढ़ाई करो। उसके दम पे नौकरी पाओ। ये आडंबर क्यों?’
‘तो अभी भी तो मेहनत ही तो कर रहें हैं न बाबूजी...!’ युवक ने उत्तर मे कहा, ‘इत्ती धूप मे चेहरा लाल हुआ जा रहा है...जब औरों को आरक्षण मिल रहा है, तो हमारी बिरादरी को भी मिलना चाहिए न!’
‘इससे तुम्हें क्या फायदा क्या होगा?’
‘अजी! ज़ाहिर सी बात है...इत्ती रगड़म-रगड़ाई न करनी पड़ेगी। नंबर कम भी आएंगे तो आरक्षण को ढाल बनाकर नौकरी के चक्रव्युह को तोड़ देंगे...’
‘फिर तुम्हें आरक्षण मिलने के बाद, दूसरी बीरादरी वाले हल्ला मचाने लगेंगे,’ मैंने कहा।
वह बोला, ‘जी! मचाने दो हल्ला। वो भी मांगे आरक्षण...देखी जाए तो हम तो उनका भला ही करने निकले हैं जी...तुलसीदास कह गए हैं, “पर हित सरिस धर्म नहिं भाई” अर्थात...
‘इस पंक्ति का अर्थ मैं जानता हूँ’ मैंने उसे बीच मे रोकते हुए कहा, ‘तुमलोग स्वार्थी हो रहे हो... तुलसीदास जी तो यह भी कह गए हैं कि “पर पीड़ा सम नहिं अधमाई”। तुम्हारे कारण लाखों रेल यात्री व्यथित हैं। रेलवे का घाटा बढ़ रहा है...करोड़ों का नुकसान...’
‘ओ बाबूजी...’ इस बार बीच मे रोकने की बारी नौजवान की थी, सो वह बीच मे बोला, ‘ज़्यादा ज्ञान न बघारो... इत्ता ही ज़्यादा है तो सरकार मे बाँट दो... हम तो प्रदर्शन करते रहेंगे...दम हो तो ट्रेन हमारे ऊपर से ही चलवा दो...वरना बस पकड़ लो...ट्रेन तो हम न चलने देंगे जी...’
उसकी बातों का जवाब यही था कि मैं चुपचाप बस ही पकड़ लूँ। सोच रहा हूँ, तमाम रेलयात्रियों की ओर से रेल मंत्रालय को एक ‘रायनुमा’ पत्र लिखूँ। पत्र द्वारा मैं रेल मंत्रालय से विनम्र निवेदन करूंगा कि हर राज्य के हर शहर मे अलग से रेलवे ट्रैक का निर्माण हो। वहाँ कृत्रिम ट्रेनें चलें। एक अधिसूचना ज़ारी की जाए कि ये रेल ट्रैक सिर्फ और सिर्फ, प्रदर्शनकारियों के लिए विशेष रूप से निर्मित किया गया है। अतः, सभी छात्रनेताओं, किसाननेताओं, धर्मनेताओं, और प्रदर्शनप्रेमियों, को यह अधिकार है कि वे धरना और विरोध प्रदर्शन, जीत और हार प्रदर्शन, यहाँ तक कि जो अप्रदर्शनीय है, उसका भी प्रदर्शन करें। बाकी, चुनावकाल मे सरकार सबकी सुनती भी है, और वादों को ड्राफ्ट भी करती है।

Wednesday 3 June 2015

हैप्पी बड्डे सरकार...

हैप्पी बड्डे सरकार...
सुना है सरकार का बड्डे हैवो भी हैप्पी वाला! कमाल है जीराष्ट्रीय छुट्टी भी नही घोषित हुई। अच्छे दिनबुलेट ट्रेन काला धन आदि नही आएन सही। किंतु भईपहले जन्मदिन के उपलक्ष्य मे आम टाइप वाले भाइयोंबहनों और मित्रों को एक अदद केक का टुकड़ा ही डाल देते। ख़ैरजहां देखा चारा वहां मुँह मारा की तर्ज़ पर एक नामी न्यूज़ चैनल के रिपोर्टरसरकार को जन्मदिन की बधाई देने के बहाने उनका साक्षात्कार कर लाए। उसी का कुछ भाग पेश-ए-खिदमत है-  
रिपोर्टर- सरकारश्रीआपको जन्मदिन की बधाई।
सरकर- ठीक हैअपने 'केक का टुकड़ालो और अपनी पर आ जाओ।
रिपोर्टर- आप एक वर्ष के हो गए। कैसा लग रहा है।
सरकर- सबकुछ नया नया सा लग रहा है। अभी तो पूरी दुनिया देखनी बाकी है। रिपोर्टर- तो आगे की क्या योजना हैसरकार - कहा न! दुनिया देखनी हैजश्न मनाना हैसरकार रूपी जन्म बार बार थोड़ी न मिलता है भाई।
रिपोर्टर- और कितने दिन जश्न मनाएंगेसरकार- जब तक बालिग नही हो जाते।
रिपोर्टर - अच्छाये मेक इन इंडिया का बड़ा शोर है। लेकिन जमीनी स्तर पे कुछ होता तो दिख नही रहा।
सरकार- क्यों नही होता दिख रहा है?  आदमी साल भर से ब रहा हैऔर हम बना रहे हैं। तो हुआ न मेक इन इंडिया?
रिपोर्टर- तो ऐसे विकास कैसे होगासरकार- देखोहर आदमी का विकास स्वयं उसका ही दायित्व है। इसमे हम क्या करेंहम तो 'अपनेविकास के दायित्व को तत्परता से पूर्ण करने हेतु शपथबद्ध हैं। रिपोर्टर- ओह! इस विषय मे थोड़ा विस्तार से बताइए।
सरकार- तुम रिपोर्टर लोग हमेशा बाल की खाल निकालने मे लगे रहते हो। देखोहमने न्यायपालिका को लगभग अपने कब्जे मे कर लिया है। तुम लोगो को तो पता ही होगाकैसे दनादन फैसले पे फैसले आ रहे हैं आजकल। एक दोहा टाइप सुनो, " पावर और पैसे काऐसा देखा मेल... तेरह साल मे जेल हुई,घंटे भर मे बेल..." हम तो इसी दोहे पे भरोसा रखते हैं। वो जुमला तो सुना होगा न "सबका साथसबका विकास"। बस थोड़ा फ़ेरबदल हुआ है उसमे। अब हो गया है, "सबका साथ,अपना विकास" रिपोर्टर- आपका जन्म हुए एक वर्ष बीत गया है। क्या कुछ ख़ास हुआ आपके साथ या आपने क्या ख़ास कियासरकार- बहुत कुछ ख़ास किया हमने। योजनाओं पे योजनाएँ लॉन्च करी। जैसे जनधन योजना। जनता का धनपहले बैंकों मे जाएगाफ़िर व्यापारियों के पासतत्पश्चात जोड़जाड़ के हमारे पास आयेगा। हमने ताबड़तोड़ विदेश यात्राएं करी। स्वच्छता अभियान लॉन्च किया। बेटी पढ़ाओबेटी बचाओ मिशन लॉन्च किया। और तो और मंगल यान भी हमने ही लॉन्च किया।
रिपोर्टर- लेकिन स्वच्छता तो चुनावी जुमला टाइप हो गयी है। जमीनी स्तर पे दिखती ही नही है। और बेटियां पढ़ने-बचने की बजाय मर-कट रहीं हैं।
सरकार- देखोदोनों ही मामलों मे हम यही कहेंगे कि आदमी का विकास उसका ख़ुद का काम है।
रिपोर्टर- अच्छाआपकी सबसे बड़ी उपलब्धि क्या हैसरकार- जी, 'घोषणाको 'चुनावी जुमलासिद्ध करना। जनता मे अब भी यह विश्वास बनाए रखना कि अच्छे दिन आएँगे।
रिपोर्टर- हमारे न्यूज़ चैनल के माध्यम से आप अपने जन्मदिन पर जनता को कुछ संदेश देना चाहेंगे। सरकार- जी ज़रूर। मित्रों... अच्छे दिन आएँगे। अवश्य आएँगेबस हमें बालिग होने दीजिए। अच्छे  दिन बुलेट ट्रेन की गति से आएँगे। हाँआप ध्यान रखें कि काला चश्मा धारण न करें। वरना बुलेट ट्रेन की गति से आ रहे अच्छे दिन आपको दिखेंगे नही। फ़िर आप हम पे दोषारोपण करेंगे कि अच्छे दिन सरपट निकल गए और बुलेट ट्रेन आप को ही रौंद करविदेश भ्रमण पे निकल गयी। धन्यवाद!          
                        -अभिषेक अवस्थी