बस कर पगले , रुलाएगा क्या....
बिहार मे कोसी नदी के किनारे एक गाँव हैं। आजकल ‘डबल’ बाढ़ग्रस्त है। पानी के साथ-साथ नेताओं की बाढ़ भी आयी है। आम आदमी ज़्यादा हाय तौबा नहीं मचाता। वह तो बस किसी तरह किनारे लगना चाहता है। किनारे लगे एक मित्र ने फोन पे बताया कि वहाँ तो मेला लगा हुआ है। सिर के ऊपर हेलिकॉप्टर मच्छरों की तरह मंडरा रहे हैं। भाषण, वादे और तंज़ का मिश्रित ‘रॉक संगीत’ तार सप्तक मे बज रहा है। पानी के अंदर डुबकी लगाओ, तो भी गायन-वादन की भनभनाहट सुनाई देती है।
दुष्यंत संभवतः इसीलिए लिख गए थे- “ये रोशनी है हक़ीक़त मे एक छल लोगों, कि जैसे जल मे झलकता हुआ महल लोगों।” चुनाव होता है तो मेला ही लगता है। रोशनी होती है। चमक-धमक होती है। गरीबी-भुखमरी की नुमाइश लगती है। गरीबी-भूखमरी के जनक और उसका लालन-पोषण करने वाले ही उन्हें ख़रीदते हैं।
‘प्रलोभनों’ का ‘एक्स्चेंज ऑफर’ भी राजनीति के बाज़ार को गरम किए हुए है। मुआवज़े और अला-फलां पैकेज एक्स्चेंज मे देकर गरीबी ख़रीदने का सफल प्रयास सतत जारी है। अपने मित्र को सावधान करते हुए मैं बोला, ‘प्यारे! बचके रहना...उन्हीं हेलिकॉप्टरों से ‘खून-चूसक’ प्राणी उतरेंगे। तुम्हारे आसपास पास नाचेंगे। तुम्हारा मनोरंजन करेंगे। मौका पाते ही तुम्हारे ‘भ्रम का भंजन’ भी करेंगे। प्रलोभन का तगड़ा डंक मारेंगे। तुम फिर से पाँच वर्ष के लिए तड़पोगे...हो सकता है सरकारी पंचवर्षीय योजना की भांति, तुम अपने जीवन का कार्यकाल पूरा करने से पूर्व ही परलोक सिधार जाओ... तुम ख़त्म हो जाओगे...वे कहेंगे हम गरीबी मिटाने को प्रतिबद्ध हैं...देखो एक गरीब कम हुआ।
मित्र हंसा। मुक्तिबोध स्टाइल मे बोला, ‘कोई नई बात करो पार्टनर...’ उसने एक स्थान का हाल सुनाया। नेताजी आगामी चुनावों के मद्देनज़र, ‘प्रलोभन-पिटारा’ खोले बैठे थे। ये प्रलोभन-पिटारा केवल खुलता है। कभी खाली नहीं होता है। ज़रा सा भी नहीं। बस अपनी चमक बिखेरता है। जनता की आँखें चौंधिया जाती हैं। ‘आस’ की मारी जनता ‘एक बार और सही’ कहकर वोट देने का प्रयास करती है। चुनावोपरांत पिटारा स्वतः बंद हो जाता है। नेता रूपी मदारी जनता से कहता है, ‘चल री बंदरिया...अब खेल खतम, पैसा हज़म...एकदूसरे को न तू जाने न हम...’ वहाँ नेताजी मीडिया संग जनता को दाना फेंकते हुए बोले, ‘मेरे प्यारे! दुलारे! खेवनहारों, मेरे बिहारी भाइयों! विजयी होने पर हम बिहार को ‘बैंगलोर’ बना देंगे। चारों ओर स्मार्ट सिटी नज़र आएंगे। पढ़ने वाले बच्चों को साइकिल नहीं, बल्कि स्कूटी देंगे। कॉपी-किताबें नहीं, वरन लैपटॉप देंगे। वादा है... बिहार से गरीब और गरीबी का नामोंनिशान मिटा देंगे...बस शर्त ये है कि हम जीत जाएँ...’
एक आदमी चुपचाप भाषण सुन रहा था। मुझे समझदार लगा। हमारे सभ्य समाज मे चुप रहकर, सिर्फ सुनना समझदारी और शराफत की निशानी है। लेकिन बाद मे उसने अपनी समझदारी उतार फेंकी। बेधड़क मंच पे चढ़ गया। जब आदमी को भरोसा हो जाता है कि अब ‘धड़कन’ बंद ही होनी है, तो वह ‘बेधड़क’ हो जाता है। चढ़ते ही उसने माइक पर से नेताजी का एकछत्र राज छीन लिया। बोला, ‘हे महाराज!, आप हमारे बारे मे इतना सोच रहे हैं...आपका बारंबार धन्यवाद...आप हम सबके प्यारे हैं...मैं तो कहूँगा कि हमारी क्या औकात? आप तो भगवान को भी प्यारे हैं...अभी नहीं है...तो जल्द ही होंगे! मगर माननीय! आप से विनती है। सिटी की सीटी न बजाएँ। स्मार्ट तो हम अच्छी खेती करके भी बन जाएंगे। बस अब ज़मीनें छोड़ दें। चारा खाकर आप अपनी महानता कम न करें। चारा हमारे मवेशी खाएँगे। आप छप्पन भोग का आस्वादन करें। हमारे होनहार बच्चे निकलते तो स्कूल के लिए ही हैं, मगर उनका स्कूल अक्सर ‘अनुपस्थित’ रहता है। कॉपी-किताबें तो खैर बाबुओ-टीचरों का ‘मिड-डे-मील’ बन जाती हैं। अतः हे दयाखिचान! आप लैपटॉप न दें। बस बिजली ‘छोड़’ दें...या तो बिहार मे जान आ जाएगी, या बची-खुची भी चली जाएगी। आपकी सुकुमार स्कूटी हेतु हमारी सड़कें अछूत हैं। यदि स्कूटी आई तो उसके नट-बोल्ट बिहार की भांति ढीले पड़ जाएंगे। उसमे ईधन डालने हेतु धन चाहिए होगा। आपकी वेतनवृद्धि पहले ही रुकी हुई है। मैं आपका कष्ट समझता हूँ। धन के लिए रोजगार चाहिए, मगर वो भी नहीं है। तो हम नहीं चाहते कि आपकी स्कूटी मात्र अपहरण-फिरौती के ईधन पे चले। हे विघ्नकर्ता! आप कष्ट न उठाएँ। हम गरीब हैं। स्वयं को आसानी से खत्म कर लेंगे। गरीब और गरीबी का नामोंनिशां मिट जाएगा। आप बस प्रसन्न रहें...
पता नहीं नेताजी ‘प्रसन्न’ हुए या ‘सन्न’ रह गए। बस अपनी डबडबाती आँखों से इतना बोले, ‘बस कर पगले, रुलाएगा क्या’?
-अभिषेक अवस्थी